“जो बोओगे सो काटोगे” ये कहावत तो अपने –अपने जीवन में सबने सुनी ही होगी| इसी कहावत पर मुझे एक संस्मरण याद आता है — एक माता जी थीं जो चलते – चलते राह में फूल बिखेरते हुए चली जा रहीं थीं, तो एक राहगीर ने देखा, उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा
“माँ! आप ऐसा क्यों कर रही हैं? इसका राज क्या है?”
माताजी ने उत्तर दिया –”बेटा! अभी फूल बिखेरते हुए जाऊँगी तो लौटते वक्त मुझे फिर फूल ही तो मिलेंगे|”
कहने सुनने के लिए तो यह एक छोटी सी बात थी परन्तु इसका बड़ा ही गहरा अर्थ था| मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि वह बिना कोई कार्य किये रह ही नहीं सकता| चाहे वह छोटे से छोटा, कुछ महीनों का बच्चा ही क्यों न हो! वह चाहे और कुछ न कर सके, परन्तु लगातार हाथ-पाँव चलाता ही रहता है, यह भी तो एक कार्य है|
इसी प्रकार जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, कार्यों का प्रकार भी बदलता जाता है| कुछ कार्य ऐसे होते हैं जो कि वह सोच–समझकर करता है और कुछ ऐसे भी होते हैं जो अनायास ही हो जाते हैं| हमारा इरादा (intention) नहीं था कि हम किसी का दिल दुखाएँ परन्तु बातों–बातों में किसी और के संदर्भ में जो बात हो रही थी उन बातों ने किसी और को तकलीफ पहुंचा दी| कुछ कार्य वह अपनी बुद्धि से न करते हुए किसी की प्रेरणा से करता है जैसे उदाहरण के लिए किसी शिकारी को कहा जाय कि क्या तुम सही लक्ष्य लगाकर इस हिरन को मार सकते हो? क्योंकि उसे सिर्फ यह सिद्ध करना था कि वह एक बहुत अच्छा shooter है उसने तुरंत बिना कुछ सोचे ही, कि मैं ऐसा कार्य करके एक निरीह प्राणी को मार रहा हूँ, shoot कर दिया| कभी तो वह जो कार्य करता है वह उसकी duty के अंतर्गत आता है,जैसे अपनी duty पर तैनात एक military solider को उसका Commander जो भी command देगा उसपर बिना कुछ सोचे-विचारे ही करना पड़ता है| इस तरह के कार्य में वह कार्य फल का भागीदार नहीं होता|
प्रकृति का यह नियम है कि जो भी कर्म करोगे ,उसका संस्कार बनेगा और उसका अच्छा या बुरा फल तुम्हें मिलेगा| एक घटना मुझे बहुत अच्छी तरह से आज भी याद है| मैं मंडला District में कार्यरत थी| मेरे ही एक सहकर्मी के ये शब्द थे कि मैंने आज फलां व्यक्ति को ऐसा सुना दिया कि उसकी चार – पांच रातों की नींद हराम हो जाएगी| मुझे यह सुनकर इतना आश्चर्य हुआ कि क्या ऐसे भी लोग हो सकते हैं, जो दूसरों की नींद खराब कर इतना खुश हो जाएँ? क्या ऐसे कर्मों का फल हमें लौटकर नहीं मिलेगा? अवश्य मिलेगा| ये कर्म फल तो हमारे पाप पुण्यों का Bank Balance है| ये कर्म फल तो इकट्ठे होते ही जाते हैं| अच्छे कर्मों का फल अच्छा, और बुरे कर्मों का फल बुरा|
एक भेद की बात यह है कि, यदि हम किसी भी कर्म (अच्छा या बुरा) को निमित्त (observer not doer) मात्र बन कर करें और उसके फल को “सर्व शक्तिमान” परमात्मा को या गुरु को (जिस किसी भी नाम से आप पुकारें उसे)”अर्पित” करते जाएँ तो हम इन कर्मा फलों से बच जाते हैं| या अपने गुरु से योगस्थ होकर कर्म करें तो भी हम इन कर्म फलों से बच जाते हैं| अन्यथा इन कर्म फलों के फल स्वरुप ही हमें बार –बार जन्म मृत्यु के चक्करों में पड़ना पड़ेगा और कभी सुख कभी दुःख भोगते रहना पड़ेगा|
इसलिए सदा कोशिश करें कि अच्छे विचारों अच्छे कर्मों व परोपकार की ही खेती करें| अत: आवश्यक यही है कि “योगस्थ होकर कार्य करें व इसकी जानकारी हम किसी संत की शरण में जाकर प्राप्त करें| सच्चे संत की शरण में एक बार प्रणिपात हो जाने के बाद, उनके सम्मुख एक बार हो जाने के बाद तो सारे पाप दग्ध हो जाते हैं|
जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है –
सम्मुख होय जीव मोहि जबही| जन्म कोट अघ नासहि तबही||
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अच्छा लिखा हैं