प्रणाम करना, नमस्कार करना, दंडवत प्रणाम करना इन सबका अपना बड़ा ही महत्व है| दूसरे लाभों को हम एक तरफ भी रखदें तो भी अपने अहंकार को हटाने का इससे अच्छा और कोई उपाय है ही नहीं| नत मस्तक होना, अभिवादन करना इससे चार चीजें बढ़ती हैं – आयु, विद्या, यश और बल|
इससे कर्म सभी कट जाते हैं और बड़ी ही आसानी से व्यक्ति तर जाता है| कहा जाता है कि विनम्रतापूर्वक झुकने से तो ब्रह्मास्त्र भी बिना स्पर्श किये निकल जाता है|
प्रातःकाल उठते ही ईश्वर को प्रणाम कर, माता-पिता को प्रणाम करने की आदत हमें अपने बच्चों में डालना चाहिए, इसका सबसे आसान एवम् उत्तम तरीका यह है कि हम पहले इस कार्य को स्वयं करें जिसे देखकर बच्चे भी करने लगें| इसके बाद घर के और बड़ों को भी प्रणाम करें जैसे बड़े भाई-भाभी, और बुजुर्ग जो भी हों| क्योंकि जिसे हम प्रणाम करते हैं उनके हृदय से न जानें कौन-कौन सी दुआएं आचानक ही बरस जाती हैं| जिसका नतीजा यह होता है कि जिस कार्य का होना हमारे भाग्य में था ही नहीं, वह भी अनायास ही हो जाता है| चाहे आपका परिवार संयुक्त हो, बड़ा हो, तो भी सुख शांति बनी रहेगी क्योंकि, हम बड़ों का सम्मान करते हैं, और वे हमेशा हमारा भला ही चाहते हैं, यह भावना आपसी द्वेष को पनपने न देगा|
कहते हैं कि परमार्थ के मार्ग पर भी आगे बढ़ने में सबसे बड़ी रुकावट अहंकार ही है जिसे हम प्रणाम कर दूर कर सकते हैं|
जब हमें किसी से ज्ञान लेना हो तो भी अकड कर, अहंकार से युक्त हों तो हमें ज्ञान नहीं मिलेगा| जिज्ञासु हमेशा विनम्रता से ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है|
कहा भी गया है कि जिज्ञासु को सदा पहले गुरु को प्रणाम कर
फिर प्रश्न पूछना चाहिए|
जैसे विभीषण जी ने हनुमानजी से, पहले प्रणाम करके कुशलता पूछी, फिर प्रश्न किया कि, आपको देखकर मेरे मन में आपके प्रति अनायास ही प्रीति हो रही है , क्या आप हरि के दासों मे से कोई हैं? क्या दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्रीराम जी ही हैं जो आप मुझे बड़भागी बनाने आए हैं? इस प्रकार हमें कई उदाहरण मिलते हैं| जिससे पता चलता है कि पहले प्रणाम , कुशल क्षेम फिर प्रश्न|