एक बार एक राजा एक संत के दर्शन करने पहुंचे । राजा ने कहा हे महात्मा ! मैं प्रजा के हित में अनेक निर्माण कार्य करता हूं , प्रजा का बहुत ध्यान रखता हूं । मैं चाहता हूं कि आप मुझे यह बताएं कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी क्या गति होगी ? संत के पूछा- कह सुनाउं कि कर दिखाऊं ? राजा ने कहा कि देखलूं तो अधिक अच्छा होगा । राजा से कहा नेत्र बंद करो और संत ने उसके सिर पर हाथ रखा । राजा गहरे ध्यान में चले गये और मन में स्वप्न सी रील चलने लगी । उन्होने देखा कि उनकी मृत्यु हो गयी और दूत उन्हें एक अत्यंत ही सुंदर महल में ले गये और बोले राजन आप यहां आराम से रहें। राजा ने देखा कि महल सूना है, कोई नौकर- चाकर भी नहीं । फिर दूतों ने रसोई दिखाया । वहां कई सोने के बर्तन थे किंतु बडी ही दुर्गंध थी । राजा ने कहा ये कैसी दुर्गंध है यहां ? दूतों ने कहा ये आपका भोजन है इसे ही खाना है। राजा ने देखा कि सब में मैला भरा है । दूतों ने फिर कहा तुम्हें यही खाना पडेगा । राजा घबरा गया, पसीना-पसीना हो गया और ध्यान भंग होगया। राजा संत के चरणों में गिर पडा और पूछा कि प्रभु ये कैसी अंत गति है ? संत बोले राजन ! तुमने जो राज्य में प्रजा हित के कार्य करवाए हैं, वो तुमने प्रजा का हित सोचकर नहीं किया बल्कि ये सोचकर किया कि सब तुम्हें धर्मात्मा राजा कहे । इस कारण तुम्हारी यही गति होगी। राजा गिडगिडाया प्रभु इससे बचाएं मुझे । संत ने उपाय बताया। राजन ! जाओ और तुम्हारे मंत्री की सुंदर बेटी को बलपूर्वक अपने महल में ले जाओ। किंतु ध्यान रखना कि वो तुम्हारी पुत्री समान है। उस पर बुरी दृष्टि न डालना । उसे अपनी बेटी की तरह ही खूब खुश रखना किंतु महल के बाहर पूरे राज्य में तुम्हारी सब लोग बुराई करेंगे कि तुमने मंत्री की पुत्री को बल पूर्वक अपनी पत्नी बना लिया । किंतु तुम शांत रहना । तुम्हारे सारे पाप तुम्हारी बुराई करने वालों पर मढ दिये जायेंगे और तुम पाप से मुक्त हो जाओगे । राजा ने यही किया और सारे राज्य में लोग राजा की बुराई करने लगे । एक बार पुन: राजा संत के पास गये इस बार राजा ने देखा कि इस बार देवदूत उन्हें स्वर्ग ले गये ।
इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि दूसरों की बुराई करने पर उसके पाप हमारे सर मढ दिये जाते हैं । अत: परनिन्दा करना बहुत बडा दोष है इससे हमें बचना चाहिए ।