जिस प्रकार वर्षा का पानी, नदी – नालों से होकर समुद्र में पहुँच कर ही संतुष्ट हो पाता है, क्योंकि वह उसका डेस्टिनेशन(Destination) गंतव्य है, उसी प्र कार हमारा भी एक गंतव्य है, वहां तक पहुँचने में आसक्ति सबसे बड़ी रुकावट, बाधा है| इसलिए यह आवश्यक है कि यह आसक्ति, किससे हो तो ठीक है,और किससे हमें लगाव बढ़ाना नहीं है| लगाव किस limit तक सही है? इनबातों की जानकारी हमें हमारे मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायक होगी और बिना अधिक भटके डेस्टिनेशन तक पहुँच कर तृप्त हो जायेंगे|
ये आसक्ति भी तरह-तरह की होती है| किसी को सांसारिक वस्तुओं की, धन, पद, मान, प्रतिष्ठा आदि| ऐसे मनुष्य जो अपने आप को इन सब आसक्तियों से बचाकर रखते हैं, वे संसार में रहते हुए भी एकदम मस्त जिन्दगी जीते है, संसार से बेपरवाह होकर अपनी मौज में रहते हैं| इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है|
एक नगर में एक गृहस्थ संत थे| वे किसी के भी धन को धूरि समान मानते थे| इसके just opposite , एक धनी व्यक्ति रहता था उसे धन से बड़ा ही लगाव था| जब कभी लोग उस महात्मा की तारीफ़ करते तो उसे सहन न होता, और लोगों से कहता कि अरे वह बड़ा ही पाखंडी ,ढोंगी और बनावटी है| उस धनिक को यह लगता था कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो धन से प्यार न करे?
एक दिन उसने सोचा कि इनकी तो मैं परीक्षा लूँगा| जिस राह से वे महात्माजी और उनकी पत्नी जाते थे उस रास्ते उसने कई अशर्फियाँ फैलादीं, और खुद एक झाडी में छिपकर बैठ गया| महात्मा जी आये और जैसे ही उनने उन अशर्फियों को देखा तो सोचा कि कहीं मेरी पत्नी का मन इस पर न आ जाए इसलिए जल्दी से इसे मिट्टी से ढँक दूं| परन्तु कैसी विचित्रता देखिये तो वह सर्वशक्तिमान भी कैसी प्यारी जोड़ियाँ बनाता है! पत्नी कहती है कि क्यों जी! आप मिट्टी को मिट्टी से क्या ढँक रहे हैं ? वे महात्मा जी भी अपनी पत्नी के शब्द सुनकर दंग रह गए और बोले—अरे तू तो मुझसे भी दो कदम आगे निकली, वाह तुम तो धन्य हो| तुम पराये धन को मिट्टी के समान समझती हो!
वे दोनों आगे बढ़ गए| चूंकि धनिक ने अपनी आँखों से ये सारी घटना देखी थी तो वह उन महात्मा जी और उनकी पत्नी के इस व्यवहार से बड़ा ही प्रभावित हुआ| उनके आगे से चलकर आया और उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला कि कृपया मुझे माफ कर दीजिये, मैं इस लायक तो नहीं कि मैं आपकी परीक्षा ले सकूं, परन्तु मैं अब मान गया कि आपको और आपकी पत्नी को तो दूसरों के धन के प्रति कोई आसक्ति ही नहीं है| ऐसा कहकर उसने उसे अपनी शरण में लेने की प्रार्थना की|
मुझे इसी बात पर आएक और दृष्टांत याद आ रहा है—एक शिष्य रघुनाथ थे| उन्हें अपने गुरु पर बड़ी श्रध्दा जागी सोचा कि ये रत्नों से जड़े हुए कंगन उनको दे दूं तो वे बहुत खुश होंगे| गुरूजी नदी किनारे अपनी मौज में बैठे हुए थे| उसने बड़ी खुशी–खुशी उनको एक कडा अर्पित किया, तो उन्होंने उसे कडे को हाथ में लेकर उंगली से घुमाते हुए झटका दिया तो वह नदी में गिर गया इसपर वह बहुत दुखी होकर पानी में कूद पड़ा और बोला आप कृपा कर बताएं की आपने कडा कहाँ फेंका? इसपर उन्होंने दूसरे कड़े को भी फेंकते हुए कहा कि यहीं फेंका है|
जो व्यक्ति दुनियादार होते हैं वे हमेशा इसी ध्यान में रहते हैं कि संसार की वस्तुओं को हम कैसे पायें , इसी पशोपेश में दिन-रात लगे रहते हैं | वहीं दूसरी तरफ जो अपने गंतव्य का ध्यान रखते हैं वे ऐसी नश्वर वस्तुओं को तुच्छ समझते हुए आगे बढ़ जाते हैं ,और बड़ी आसानी से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं|