जब हमारा अंतर शांत हो जाता है तो हम आनंद में डूब जाते हैं और हम सुख दुःख अनुभव नहीं करते | हमारी इन्द्रियाँ नव रसों को जानती है और अनुभव भी करती है| आनंद रस तो इन सबसे अलग ही होता है| इस के विषय में तुलसीदास जी कहते हैं—राम चरित जो सुनत अघाहीं , रस विशेष तिन्ह जाना नाहीं ||
ये और कहीं नहीं! हमारे अंतर में ही है|
जिस प्रकार कस्तूरी मृग, अपने ही अन्दर जो सुगंधि है उसे बाहर ढूंढता है उसे यह पता ही नहीं कि वह सुगंधि उसी के अन्दर है, उसी प्रकार मनुष्य अपने ही अन्दर स्थित इस आनंद को हर जगह ढूंढता है जबकि वह हमारी आत्मा का ही गुण है|
इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है – एक ब्राह्मण था | उसने बहुत कठिन साधना की | शंकर भगवान प्रकट हुए| उन्होंने वरदान स्वरुप ब्राह्मण को पारस पत्थर दिया था| उस ब्राह्मण ने उस पारस को जीव गोसाईं को दिया था| वह कुछ समय बाद उसे वापस लेने आया तो वे महात्माजी बोले –वहीं पड़ा है उठालो जहाँ तुम रखकर गए थे| ब्राह्मण ने परस पत्थर तो उठा लिया परन्तु साथ ही एक जिज्ञासा भी प्रकट हो गई | मैंने तो कितना कठिन तप किया तब मुझे यह पारस मिला और इन्होंने तो बड़ी सहजता से कह दिया कि वहीं पड़ा है उठालो! इसका मतलब यह है कि इनके पास इससे भी बहुमूल्य कोई वस्तु जरूर है ऐसा सोचते हुए जा रहा था और उस जानने की इच्छा ने मजबूर कर दिया और वह ब्राह्मण फिर से लौट आया महात्माजी के पास| महात्माजी बोले अरे क्या हुआ? पारस नहीं मिला? महात्मन! परस तो मिल गया, परन्तु इसके साथ एक जिज्ञासा भी मिली कि आपके पास इस पारस मणि से भी कीमती कोई वस्तु है| महात्मा जी बोले – हाँ अवश्य इससे भी बहुमूल्य वस्तु मेरे पास है| इसपर ब्राह्मण बोला –मैं उस वास्तु को पाना चाहता हूँ| महात्माजी ने कहा –तो फिर इस पारस मणि को यमुना में फ़ेंक दो, और उसने फ़ेंक दी और महापुरुष के चरणों में प्रणिपात हो गया और समय आने पर उस परम धन को प्राप्त किया जिसकी उसे चाह थी| वह था आत्मानंद,जो परस मणि से भी बहु मूल्य है|