अपने पथ पर आगे बढ़ते हुए, हमसे कुछ न कुछ कर्म तो होते ही हैं|
जिसका प्रभाव हम पर ही पड़ता है| चाहे वह प्रभाव direct हो या न हो| यदि हम दूसरों के साथ भला करते हैं और उसका अच्छा फल हमें मिलता है तो किसी का बुरा चाहें या अपकार करें तो उसका फल भी तो हमें ही भुगतना पड़ेगा| परन्तु इस संसार में हम देखते हैं बिना एक दूसरे की सहायता लिए हम जीवित भी तो नहीं रह सकते| अगर हम अपना नजरिया बदलकर देखें तो, हम सब एक ही तो हैं, क्योंकि एक ही स्रोत (source) से हम सब शक्ति(power) प्राप्त कर रहे हैं, तो फिर भेद भाव कैसा? फिर किसी से मित्रता और किसी से शत्रुता कैसी? विश्व की सेवा तो अति सुन्दर है| वास्तव में मनुष्य का कल्याण तो दूसरों के कल्याण में ही है| इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है —-
महीरथ नाम का एक राजा था| अत्यंत दयावान न्यायप्रिय और धर्मं निष्ठ| उसके राज्य में बड़ी ही सुख शान्ति थी| राजा बूढा हो चला और एक दिन मृत्यु को प्राप्त हुआ| चूंकि उसने आजीवन अच्छे कर्म ही किये थे तो उसे लेने देव दूत पहुँच गए और कहने लगे –- महाराज चलिए हम आपको वैकुण्ठ ले जाने आये हैं| राजा को वे लोग अपने साथ लेकर निकले| राह तय करते समय उन्हें एक ऐसे राह से गुजरना पड़ा जहाँ के प्राणी अत्यंत दुःख से दुखी थे| वे सब जिस पीड़ा को सह रहे थे उसके बारे मे सुनने मात्र से भी दिल दुखी हो जाये| असहनीय दुःख के कारण वे बेचारे कराह रहे थे| राजा ने जब पूछा तो पता चला कि यह नरक है और स्वर्ग पहुँचने के लिए इस मार्ग से होकर गुजरना पड़ता है| राजा को इनकी दुर्दशा देखकर दया आ गई|
परन्तु उसने एक बड़ी ही अजीब बात observe की, वह यह कि जैसे ही राजा उन लोगों के पास से गुजरते तो वहां के लोगों के तकलीफ़ में राहत मिल रही है, कष्टों से पीड़ित प्राणी शीतलता का अनुभव कर रहे हैं| राजा ने देवदूतों से पूछा की ऐसा क्यों हो रहा है? देवदूतों ने राजा को समझाया कि यह सब आपके शुभ कर्मों का फल है| जिस प्रकार पुष्पों को, चन्दन के वृक्षों को, जो वायु स्पर्श करके निकलती है तो उस वायु में सुगंध आ जाती है और वह राहगीरों को सुख प्रदान करती है उसी तरह संत महात्माओं अर्थात् पुण्यात्माओं को स्पर्श करके बहाने वाली वायु भी लोगोंको सुख पहुंचाती है|
परन्तु राजा आपको तो स्वर्ग मिला है चलिए जल्दी-जल्दी चलें| राजा ने कहा हे देवदूतों! आप मुझे यहीं छोड़ दें| मुझे तो स्वर्ग की कोई अभिलाषा नहीं है| दुनियां में वह सबसे बड़ा पापी है जो दीन दुखियों के दुःख को दूर करने की क्षमता रखते हुए भी उनके दुखों को दूर न करे|
अतः मेरी अभिलाषा यह है कि मैं इस संसार की ज्वाला में जलते हुए जीवों को शीतलता प्रदान करूँ| मुझे न राज्य की चाह है न ही स्वर्ग की|
ऐसा व्यक्ति वह चाहे राजा हो या कोई साधारण पुरुष, वह किसी संत से कम नहीं, जो दीन दुखियों को राहत प्रदान करने के खातिर अपना राज्य और स्वर्ग भी छोड़ दे| यही आवश्यक है कि हम सही मार्ग पर चलें और दूसरों को सुख देकर खुद भी सुख का अनुभव करें|