अहंकार (भाग 2)

जब कोई व्यक्ति किसी के पास ज्ञान पाने के उद्देश्य से जाता है,तो उसे हम शिष्य और जिससे ज्ञान लेते हैं उसे गुरु कहते हैं| मैंने अपने ताऊजी से ये सुना था कि जब भी कोई शिष्य अपने गुरु के समक्ष उपस्थित होता है तो पहले प्रणाम,फिर सेवा| बाद में ज्ञान प्राप्त करता है, सेवा से ही अहंकार क्षीण होता है, क्योंकि मनुष्य में बहुत तर्क बुद्धि होती है, वह अपना मान छोडना नहीं चाहता| जबकि हमें किसी से ज्ञान लेना हो तो विनम्रता लानी होगी| अपनी चालाकी तर्क बुद्धि सम्मान गुरु चरणों में न्योछावर करना होगा | इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है|
नामदेवजी को तो सभी जानते है वे महाराष्ट्र के बहुत बड़े संत हुए| यह उस समय की बात है जब पंढरपुर में भगवान् ,इनके हाथों से दूध पीते थे,घंटों बातें करते थे|
एक बार की बात है जब गोराजी कुम्हार के घर पर संत सम्मलेन हुआ|जिसमे गोराजी,मुक्ताबाई,नामदेव जी ज्ञानदेव जी जैसे कई लोग आये| अध्यात्म पर चर्चा हो रही थी| इस बीच मुक्ता बाई का ध्यान पास में रखी हुई एक लकड़ी की वस्तु पर पडी,उनने गोरा जी से पूछा- काका ये क्या है? उनने कहा- इसे थापी कहते हैं,इससे हम पहचानते हैं कि घड़ा कच्चा है या पक्का| नामदेवजी बोल पड़े क्यों न हम सब (घड़ों)को भी देख लेते कि कौन कच्चा है |
तुमने सही कहा,कहकर गोराजी सबकी पीठ पर थापी से मारते, यह देखकर नामदेवजी सोचने लगे , ये तो कुम्हार है और सब संतों को कैसे थापी से मार रहा है और आख़री में नामदेव तक पहुंचे इनकी पीठ पर तो कुछ ज्यादा ही जोर से मार दिया था वे तिलमिला उठे| मुक्त बाई बोलीं अब बताइये काका कौनसा घडा सबसे कच्चा है? उनने कहा कि बाकी सब तो पक गए परन्तु नामदेव का घड़ा अभी कच्चा है, यह सुनते ही, नामदेवजी के अहंकार को चोट लगी|
मुक्त बाई बोलीं काका अब आप ही कोई उपाय बताएं –जिससे यह घड़ा पक्का हो जाये| उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ बिठोवा जी हैं जो यहाँ सेवा करते हैं, उनको इन्हें गुरु बनाना होगा| तभी यह पक्का हो पायेगा| यह सुनते ही वे आग बबूला हो उठे और तुरंत पंढरपुर के लिए रवाना कर गए| भगवान् के समक्ष पहुंचकर रोने लग गए बोले- आज मेरा कितना अपमान हुआ? भगवान् बोले –देखो गोराजी ने जो कहा एकदम सही कहा, बिठोवा जी को गुरु नहीं बनोगे तो तुम्हारा कल्याण नहीं होगा, मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूँ, परन्तु यह परमावश्यक है| नामदेव इस बात के लिए राजी नहीं थे, अतः रोते रहे| भगवान ने उनकी एक न सुनी| नामदेव समझ गए कि भगवान माननेवाले नहीं हैं, तो वे बिठोवा जी के घर पहुँच गए| परन्तु वे मंदिर में थे इसलिए ये भी वहीं पहुँच गए| उन्होंने देखा कि बिठोवा जी मैला सा कपडा ओढ़े हुए हैं और पूरे नाम से न पुकार कर नाम्या तू आ गया? बोले| उन्हें अच्छा न लगा| देखते क्या हैं कि वे तो शिव लिंग पर पैर रखे हुए लेटे हैं, उन्हें लगा कि क्या इन्हें इतना भी नहीं पता कि इसपर पैर नहीं रखना चाहिए| इतने में वे खुद ही बोले –मैं बहुत कमजोर हूँ तू ही मेरे पैर कहीं और कर दे| वे जिस ओर पैर घुमाते शिव लिंग उसी तरफ घूम जाता ऐसा तीन बार हुआ| तब उन्हें पता चला कि यह कोई साधारण आदमी नहीं है, जिसे मैं इतनी नीची निगाह से देख रहा था |
उन्हें बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ, पैर पकड़ लिए,और गुरु बना लिया, अपना अहंकार उनके चरणों में चढ़ा दिया| उन्होंने,नामदेव जी को पूर्ण कर दिया|
अतः आत्मोन्नति के लिए अहंकार की भेंट जरूरी है|

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