अक्सर हम अपने जीवन में देखते ही हैं कि लोग दूसरों को बड़ी ही आसानी से उपदेश दे जाते हैं, कि
अरे! ऐसा करना चाहिए, या ऐसा नहीं करना चाहिए,
परन्तु जब अपनी ख़ुद की बारी आये तो उसे अमल नहीं कर पाते|
इसी बात पर मुझे एक घटना याद आ रही है|
एक साधु थे, भगवद्गीता का पाठ करने वाले भक्त थे| गाँव के लोग उन्हें बड़ा सम्मान देते थे| किसी के भी घर में किसी की मृत्यु हो जाये तो वे उस घर में भगवद्गीता का पाठ करने के लिए और उसे समझाने के लिए बुलाए जाते थे| वे लोगों को समझाते कि जिस प्रकार वस्त्रों के घिस जाने और फट जाने पर हम उनका परित्याग कर देते हैं और नए वस्त्र धारण कर लेते हैं, उसी प्रकार हमारी आत्मा भी नए शरीर को प्राप्त कर लेती है, अर्थात् हमें दुखी होने की आवश्यकता नहीं है|
एक दिन एक बुढ़िया का इकलौता पुत्र मर गया और उस स्त्री का तो संसार ही उजड़ गया था| ऐसी परिस्थिति में जब उसने ऐसे प्रवचन को सुना तो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा|
अब कुछ दिनों बाद उस कथावाचक के भी इकलौते पुत्र की मृत्यु हो गई| अब वह किसी के सामने रोये तो कैसे रोए?
उस बुढ़िया का घर, इस कथावाचक के घर से लगा हुआ ही था| कथावाचक ने रात को अपने कमरे के दरवाज़े बंद कर लिए और फफक-फफककर रोने लगा, तो इस आवाज़ को बुढ़िया ने सुन लिया| अब अगले दिन जब वह कथावाचक से मिली तो पूछ बैठी कि क्यों साधू महाराज! आपका वह गीता का ज्ञान कहाँ गया? कल रात आप छिप-छिपकर फूट –फूटकर क्यों रो रहे थे? आपके अनुसार तो यहाँ रोने की कोई आवश्यकता है ही नहीं, क्योंकि आत्मा ने तो सिर्फ अपना शरीर बदला है| साधू का सर शर्म से झुक गया| असली साधू तो वही है जो स्थितप्रज्ञ होता है|
उपरोक्त घटना से यह सिद्ध होता है कि दूसरों को उपदेश देना आसान है परन्तु वही परिस्थितियां खुद पर आयें तो उस पर अमल करना आसान नहीं| अमल करने की क्षमता तो सिर्फ स्थितप्रज्ञ में ही होती है|