जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब किसी व्यक्ति की चाह ख़त्म हो जाती है| ऐसी बात पर हरेक व्यक्ति विश्वास भी नहीं कर सकता है| परन्तु यह सत्य है कि कुछ लोगों के जीवन में ऐसा अवसर आता है| इस बात पर मुझे एक घटना याद आ रही है|
एक बार स्वामी विवेकानंद के जीवन में ऐसा भी समय आया था जब उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि बासे भोजन की भी व्यवस्था नहीं हो पा रही थी वे किसी काम से अपने गुरु के समक्ष पहुंचे| गुरु से भला क्या छिपा? वे उनकी स्थिति जान गए और बोले जाओ मंदिर में माँ हैं उनके समक्ष पहुँचो और कुछ मांग लो| नरेन्द्र वहाँ पहुंचे और देखा कि वहां तो मूर्ति की जगह माँ साक्षात् ही खड़ी हैं, विस्मित हुए, प्रणाम किया और बिना कुछ मांगे ही लौट गए| राम कृष्ण परमहंस ने पूछा
कि माँगा? बोले नहीं| गुरु ने फिर वापस भेज दिया, जाओ अब मांग लेना| वे फिर से बिना कुछ मांगे ही लौट गए|
इस बार गुरूजी गुस्सा होकर बोले– जाओ जल्दी जाओ माँ अब लौटने ही वाली हैं| वे फिर पहुंचे| माँ ने कहा बोलो बेटा क्या चाहिए? हर बार एक ही उत्तर था – माँ! मैं तो तुम्हारे दर्शनार्थ आया था, और बोले— माँ! बच्चे को माँ के सिवा और क्या चाहिए?
अब राज की बात — ऐसा क्या कारण था कि विवेकानंद नहीं मांग पाए?
दर्शन के बाद भी यदि कुछ मांगना बाकी रह जाए वह दर्शन तो दर्शन ही नहीं है|
ऐसा ही दूसरा उदाहरण केवट का है– जब वह गंगा पार ले जाकर रामजी व सीता माता को नाव से उतारता है तो सीता माता उसे मेहनताना के रूप में रत्न जडित सोने की अंगूठी देती हैं पर केवट ने उसे स्वीकार नहीं किया|
क्योंकि ईश्वर दर्शन का फल ही यह होता है कि वह व्यक्ति दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित हो जाता है| और कहता है— मिटे दोष दुःख दारिद दावा, अर्थात् आपके दर्शन से मेरे दोष, दुःख, दरिद्रता सभी दूर हो गए|
जब जीव भगवान् के सम्मुख दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है तब ईश्वर यही कहते हैं—
सम्मुख होय जीव मोहि जबही , जन्म कोटि अघ नासहि तबही|
(सीता) माया ने जीव रूपी केवट को माया में ही फंसाना चाहा, परन्तु ख़ास बात यह है कि अब दर्शन के बाद वह केवट तो केवट ही नहीं रहा| वह तो ब्रह्मानंद में मस्त था और माया से परे था|
यही कारण था कि — केवट ने कहा “अब कछु नाथ न चाहिए मोरे”|