गुरु शब्द की व्याख्या जितने भी विद्वानों की, सबका आशय एक ही है। “गु” का अर्थ अंधकार और “रु” का अर्थ प्रकाश है। अर्थात वह व्यक्ति जो हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ले आये उसे गुरु कहते हैं। यदि हम अपने सामान्य जीवन को देखें तो स्कूल में जिसने पहला अक्षर “ अ “ या “A” लिखना सिखाया है, उसकी ही कृपा से हमने अक्षर ज्ञान पाया और वहां से आगे बढते- बढते हम Engineer, Doctor, scientist बन गये । अब और विचार करें तो पता चलता है कि पढाई के अलावा भी अनेक क्षेत्र हैं और सभी क्षेत्रों के गुरु भी अलग-अलग हैं क्योंकि हमें प्रत्येक काम किसी न किसी से सीखना होता है । किंतु ये सारे गुरु वो हैं, जिनसे हम ज्ञान पाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। इस संसार में दो तरह की विद्यायें हैं । पहली अपरा विद्या अर्थात सान्सारिक विद्या और दूसरी परा विद्या यानी संसार से परे की विद्या। इस पर विद्या के सच्चे ज्ञानी ही सद्गुरु, परमसंत, या समर्थगुरु कहलाते हैं । ये गुरु हमें ज्ञान नहीं देते । वो यह कहते हैं कि ज्ञान तो सबके अंतर में है किंतु हमारे ज्ञान पर एक पर्दा आ गया है जिसे अज्ञान का पर्दा कहते हैं। संत हमारे इस पर्दे को हटाकर हमें अपने वास्तविक स्वरूप का practically दर्शन करा देते है । क्योंकि इस ज्ञान के लिये Theory किसी काम की नहीं है । इसे एक कहानी के माध्यम से समझने का प्रयास करें ।
एक शेरनी जिसके प्रसव का समय निकट था किंतु शिकारी को देख शेरनी भागने लगी कि उसका प्रसव हो गया । शेरनी बच्चे को छोड भाग गयी किंतु जिस स्थान पर शेरनी का प्रसव हुआ था वहीं निकट गीदडों का एक समूह था । नवजात शेर को देख गीदड उसे अपने वास स्थान पर ले आये । अब नवजात शेर धीरे-धीरे गीदड बच्चों के साथ उसी तरह रहने लगा जैसे उसी परिवार का सदस्य हो । एक दिन एक शेर ने बडे आश्चर्य से देखा कि ये शेर का बच्चा गीदडों के साथ रहा है और उन्हीं की बोली भी बोल रहा है। शेर ने सोचा इसे इसकी वास्तविकता से परिचय कराना पडेगा । किंतु जैसे ही शेर इनके निकट आया, सारे गीदड भागने लगे किंतु शेर ने शेर के उस बच्चे को पकड लिया और बोला कि तू शेर है और तू इन गीदडों के साथ क्यों रह रहा है और उन्हीं की बोली भी बोल रह है । भाई ! तू शेर है तुझे मुझ जैसे दहडना है। शेर के बच्चे ने कहा नहीं मै शेर नहीं हूं मै तो गीदड हूं। तब शेर ने सोचा कि जब तक इसे इसका वास्तविक स्वरूप न दिखा दूं ये मानेगा नहीं। शेर ने उस बच्चे से कहा तुम मेरे साथ आओ और उसे एक जलाशय के पास ले गया और बोला देख पानी में तेरे और मेरे बिंब को । क्या तुझ में और मुझ में कोई अंतर है ? शेर के बच्चे ने देखा और बोला हां आप सत्य कहते हैं हम दोनो तो एक जैसे हैं । फिर शेर ने उसे समझाया कि अब तू भी मेरे जैसे दहाड निर्भय होकर जंगल में विचरण कर और अपने साथ रख कर अपने जैसा ही निडर और जंगल का राजा बना दिया । यही बात हमारे साथ भी है। ईशावास्य उपनिषद की पहली पंक्ति में यही लिखा है “ ईशावास्यमिदं सर्वं” अर्थात – इस दृश्यमान जगत में जो कुछ भी है, सब ईशर ही है । किंतु हमें कोई कितना ही समझाये, हम कितने ही प्रवचन सुनें, कितनी ही पुस्तकें पढें हम यह कैसे मान सकते सकते है जब तक कि हमें कोई practically न दिखा दे । जब तक हम अपने वास्तविक स्वरूप का दर्शन न कर लें तो हम कैसे मानें ? और जो हमें अपने वास्तविक ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन करा देता है उसे ही हम समर्थगुरु कहते हैं । अपने वास्तविक स्वरूप को practically जानना ही आत्मज्ञान है जिसे हम प्रवचन सुनकर या पुस्तकों को पढकर पा नहीं सकते । तभी तो संत कहते हैं- “ तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आंखिन की देखी ।“ इस कारण इस आत्मज्ञान को पाने का दूसरा कोई मार्ग है ही नहीं। यह तो किसी संत सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।