आत्म संतुष्टि

हमें अपने जीवन में कुछ कार्य सिर्फ आत्म संतुष्टि के लिए करने चाहिए, अर्थात् उस कार्य को करके हम खुश हों, एक आतंरिक प्रसन्नता मिले| परन्तु उस खुशी को हम अपने अन्दर छुपाकर रख सकें, सब तरफ उसका प्रचार न करें, क्योंकि हमारा दाता भी तो हमारे ऊपर जब कोई उपकार करता है तो ढिंढोरा नहीं पीटता है, इसीलिए वह भी यही चाहता है कि हम भी अपने द्वारा किये गए कार्यों को ऐसे करें कि वह सिर्फ हमारे मालिक को पता हो और किसी को नहीं|

यदि हम मंदिर जाते हैं, नियम से पूजा पाठ करते हैं, या फ़िर अपने मालिक को खुश करने के लिए उसी के किसी बन्दे की सेवा करते हैं, अर्थात् वे सब उसी की संतान ही तो हैं| यदि हम शुभ कार्य के मार्ग पर बढ़ रहे हों तो, किसी पर एहसान कैसा? कोई एक छोटा सा अच्छा कार्य किया कि अभिमान ने घेर लिया! कि हम बड़े भक्त हैं, परन्तु हमें इन सबसे बचना होगा|
इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है — एक समय की बात है| एक राजा था| उसकी रानी बड़ी धार्मिक विचारों वाली और भक्त थी| रानी का ज्यादातर समय पूजा पाठ में ही बीतता था| “राजा भले, उनकी हुकूमत भली”| वे और किसी कार्य में दिलचस्पी न लेते| रानी ने कई बार राजा से request की, कि यह मानव तन हमें अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मिला है, हमें पूजा पाठ करना चाहिए| उसकी कृपा से हमारे पास आज राज –पाट, सुख-वैभव सब कुछ है, पर मैं देखती हूँ कि आप एक मिनिट भी उसका स्मरण नहीं करते, न ही उसके द्वारा मिली हुई इन सब चीज़ों के लिए उसे धन्यवाद ही देते हैं|
राजा ने इन सब बातों को सुनकर भी कुछ न कहा| इस पर रानी ने सोचा इन्हें मेरी बात पसंद नहीं, इसीलिए मौन हैं| इसी तरह रानी ने कई बार प्रयत्न किया,जिससे राजा का मन ईश्वर की ओर लगे|
एक बार राजा बीमार पड गए, रानी घबरा गयी और बोली मैं तो बोल- बोल कर थक गई, परन्तु आपने मेरी एक न सुनी, अब तो उसे याद कर लीजिये, आपकी सारी तकलीफ दूर हो जायेगी| किसी भी दवा का कोई असर न हुआ| रानी, राजा के सिरहाने बैठी रही| राजा बडबडाने लगे, और रानी ने सुना कि राजा के मुँह से राम –राम शब्द निकला|
प्रातःकाल राजा की तबियत कुछ अच्छी हुई| रानी ने कहा आज मैं बहुत खुश हूँ | राजा ने कारण पूछा तो वह बोली कि कल मैंने आपके मुँह से राम –राम शब्द सुना| क्या सचमुच? रानी ने बड़ी खुशी से हाँ कहा|
राजा घबराकर बोले—“तब तो गज़ब हो गया” जिस वस्तु को मैंने इतना छिपाकर रखा, वह राज आज प्रकट हो गया| अब मेरा जीना व्यर्थ हो गया, इतनी पवित्र निधि क्या प्रकट करने योग्य है”? मुझ से इतनी बड़ी गल्ती कैसे हो गई, ऐसा सोचा और उसी समय प्राण त्याग दिए|
राजा की ख़ास बात यही थी कि राजपाट में तल्लीन रहते हुए भी उस मधुर प्रेम पीड़ा को उसी प्रकार छुपाये रखा जैसे कोई गरीब अपनी निधि को|

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