दयालुता मानव का सबसे बड़ा गुण है, जैसा की तुलसीदासजी ने कहा है, धर्म के मूल में दया है, जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं तब तक हमें दया को छोडना ही नहीं चाहिए| हमें अक्सर देखने को मिलता है कि यह गुण संतों में लबालब भरा हुआ होता है | उनकी महानता बखानना सूरज को दीया दिखाने जैसा ही होगा| ऐसे सर्व शक्तियों से भरपूर लोगों को हम किसी भी नाम से पुकार लें गुरु, भगवान चाहे सर्वशक्तिमान| है तो वह एक ही उसकी स्तुति के लिए अगर सारे समुद्र स्याही बन जाएँ , सारे वनों के वृक्ष कलम बन जाएँ तो भी गुरु- गुण का वर्णन नहीं किया जा सकेगा क्योंकि वह इतना विस्तृत है|
उनकी दयालुता ऐसी होती है की वे दोषों में भी गुणों को खोज लेते हैं| संत की संगति से कुछ ही समय में साधारण व्यक्ति जिसमे कई अवगुण भरे हैं वह भी सन्त बन जाता है| वे दया के सागर ही होते हैं|
इसी बात पर मुझे दृष्टांत याद आ रहा है — एक दिन एक चोर एक महात्माजी के घर चोरी करने पहुंचा, जिनका नाम गदाधर भट्ट था| सारा चोरी का माल उसने एक चादर में बाँध लिया था| गठरी बड़ी भारी होगई, उठाये न उठती थी| उठाने की कोशिश करता और बार –बार वह गिर गिर पड़ती, और वह पसीने से बुरी तरह भीग चुका था| उस वक़्त महात्माजी तो जाग ही रहे थे, और वे चुपचाप सब कुछ देख रहे थे| उसकी यह दशा देख उन्हें दया आ गयी| वे एकदम चुप-चाप उठे और गठरी उठवाने लगे| चोर आश्चर्य चकित हो गया| वे बोले कि तुम घबराओ मत| थोड़ी ताकत तुम लगाओ थोड़ी मैं लगाता हूँ, और गठरी उठ जायेगी| चोर को लगा कि हो न हो यह कोई साधारण पुरुष नहीं हैं जरूर कोई महापुरुष हैं| चोर ने पूछा आप कौन हैं ? उनने भी बड़ी ही सहजता से अपना नाम बता दिया| गदाधर भट्ट नाम सुनते ही उनके चरणों पर गिर पड़ा| दोनों हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की कि मुझे माफ़ करें,मुझे सही राह दिखलायें व अपनी शरण में लें |
एक संत की दयालुता व कृपा का प्रभाव ऐसा होता है कि किसी भी व्यक्ति के स्वभाव में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है | एक साधक एक संत बन जाता है |
जब भी हम भगवान् के कृपा प्रसंगों को सुनते हैं,तो यह बड़ी स्वाभाविक सी बात है की आँखों से प्रेमाश्रु उमड़ पड़ते हैं|
एक महंत जी थे उनकी भागवत कथा में एक संत भी आते थे| महंत जी इस बात से दुखी थे कि जब भी वे दया,कृपा प्रसंगों को सुनाते तो उनकी आँखों से प्रेमाश्रु नहीं निकलते थे| परन्तु श्रोताओं की आँखों से अश्रु धारा बह निकलती, इस बात की उन्हें बड़ी ही ग्लानि थी| उन्हें एक उपाय सूझा कि कंधे पर डालनेवाला जो अंग वस्त्र होता है उसमे थोड़ी सी लाल मिर्च लगाकर आँखों में लगा लेते, जिससे अश्रु बहने लगते,यह बात भट्ट जी को, कथा के ऐसे प्रसंगों से पता चली| वे महंतजी के आश्रम गए और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया, और बोले- आपने तो उन नेत्रों को जो कृपा प्रसंगों पर भी प्रेमाश्रु नहीं बहा सकते, अच्छी सजा देदी और अपने गुप्त प्रभु प्रेम का हीआ परिचय दिया| फिर महंतजी को गले लगाकर,उनके सोये हुए संस्कारों को जगा दिया| जो प्रेम धारा उनके हृदय मेंथी उसे महंत जी के हृदय में प्रवाहित कर दिया|
ऐसे कार्यों को करके भी संत (गुरु) कभी कहता नहीं कि तेरे लिए मैंने इतना बड़ा काम किया,या तुझ पर दया की या कृपा की, हाँ वह अवश्य ही कई वर्षों बाद अवश्य पता चल जाता है |
हमें भी अपनी आत्मोन्नति के लिए अपने अन्दर दया भाव को भरने का प्रयत्न करना चाहिए|