इस विश्व में दो शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, एक जय दूसरा पराजय|
चाहे युद्ध क्षेत्र में हो, चाहे शास्त्रार्थ में हो, जो जीते उसी को अभिमान हो जाता है कि मैं महान हूँ, मैंने दूसरे को परास्त कर दिया| परन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे भी देखने में आये जो यह सोचते हैं कि वाद-विवाद, शास्त्रार्थ जैसे अवसरों पर, यदि कोई इस उद्देश्य से आये कि मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, मैं तो इन्हें शास्त्रार्थ में हरा ही दूंगा,जीतने की क्षमता रखते हुए भी, अगले को खुशी देने के उद्देश्य से, हार स्वीकार करने के लिए सहर्ष तैयार रहते हैं| जबकि यह बड़ा ही कठिन कार्य हैं| हम अक्सर अपने घरों में, अपने कार्य क्षेत्र में देखते ही हैं यदि कोई हमारी बात गलत साबित करने की कोई कोशिश कर रहा है तो तुरंत उसे दबाने के लिए अपनी आवाज़ ऊँची कर देते हैं कि कहीं हमारी हार न हो जाये|
इसी बात पर मुझे एक दृष्टांत याद आ रहा है —एक तीर्थ स्थान पर एक महात्माजी निवास करते थे | वे पूर्ण पुरुष तो थे ही विद्वत्ता में उनका बड़ा ही नाम था| उन्हीं दिनों एक पंडित जी शास्त्रार्थ में अपनी जीत हासिल करते हुए उसी स्थान पर आ पहुंचे जहाँ ये महात्माजी रहते थे| महात्मा जी का नाम सुनकर वहां पहुँच गए और बोले आप मुझसे शास्त्रार्थ कर लीजिये| इसपर महात्माजी बोले — आप तो पूर्ण विद्वान् ही हैं, मैं आपसे क्या शास्त्रार्थ करूं? लाइए मैं ऐसे ही लिखकर दे देता हूँ कि मैं हार गया और आप जीत गए| ऐसा लिखवाकर वे बड़े गर्व के साथ लौटने लगे कि राह में उन्हें उन महात्मा जी का एक शिष्य मिल गया| उसने सुना कि गुरु जी ने हार मान ली, और लिखकर भी दे दिया| वह शिष्य बोला—आप जिन्हें जीतकर जा रहे हैं वे वास्तव में हारे नहीं हैं, मैं उनका एक छोटा सा शिष्य हूँ, आप मुझसे बात कर लीजिये| वह शिष्य पूर्ण विद्वान् भी था, पंडितजी को ऐसा हराया कि बात भी नहीं करने दी और अपने जीतने के हस्ताक्षर कराके बड़े गर्व के साथ गुरूजी के पास पहुंचे कि गुरूजी प्रसन्न होंगे कि मेरे शिष्य ने एक विद्वान् पंडित को मात देदी| गुरु महाराज के समक्ष पहुंचकर वह पत्र उनके चरणों में रख दिया|
उन्होंने पढ़ा और कहा कि तुम अभी मेरे आश्रम से चले जाओ| अरे! तुम एक ब्राह्मण को इतना सा मान नहीं दे सकते? क्या मैं उन्हें पराजित नहीं कर सकता था ?
परन्तु एक विद्वान् आदमी केवल एक यही इच्छा तो लेकर आया था, कि मैं जीत जाऊं, और तुमने मेरी बात तक नहीं समझी|
क्या तुम यह नहीं जानते कि सबसे बड़ा दान दूसरों को मान देना और अपने को अमानी बनाना ही है|
जैसे ही यह खबर उन पंडित जी ने सुनी तो महात्माजी के चरणों में प्रणाम किया और स्वयं को उनका शिष्य स्वीकार करने की प्रार्थना की और उनके शिष्य हो गए| सज्जनों की संगति से व्यक्ति में विनम्रता आती है और अहंकार दूर हो जाता है जिससे सद्गुण अपने ही आप संचित होने लगते हैं और एक दिन वह सद्गुणों का भण्डार बन जाता है और सभी उसका साथ पसंद करते हैं|